जी चाहता है। ( हमरी कलम से )

अल्हड़ आवारा आलसी होने को जी चाहता है ,
एक बार फिर से, बेफिक्र जीने को जी चाहता है।

हर शाम यारो संग बिताने को जी चाहता है,

बेमुरौवत पैसा उड़ाने को जी चाहता है,

जी चाहता है देर सुबह आंखे खोलू फिर से,

सबकी नज़रों में निकम्मा बन जाने को जी चाहता है।

अल्हड़ आवारा आलसी होने को जी चाहता है ,

एक बार फिर से, बेफिक्र जीने को जी चाहता है।

उसके मुहल्ले की गली से उसकी खिड़की तांकने को जी चाहता है,

गर्दन से लिपटे उस दुपट्टे के रंग पे तंज कसने को जी चाहता है,

जी चाहता है दबोच ले किसी की बाहें फिर से,

एक बार फिर से इश्क़ लडाने को जी चाहता है।

अल्हड़ आवारा आलसी होने को जी चाहता है ,

एक बार फिर से, बेफिक्र जीने को जी चाहता है।

कांधे पे लदी इंन जिम्मेदारियों से भाग जाने को जी चहता है,

एक बार फिर से, गैरजिम्मेदार हो जाने को जी चाहता है।

जी चाहता है एक बार लांगते चलूं सब लकीरें,

एक बार फिर से आज़ाद हो जाने को जी चाहता है।

अल्हड़ आवारा आलसी होने को जी चाहता है ,

एक बार फिर से, बेफिक्र जीने को जी चाहता है।

उत्कर्ष श्रीवास्तवा ।

© Copyright reserved Sankshep-The summary 2018

10 thoughts on “जी चाहता है। ( हमरी कलम से )

Leave a comment